The Anveshan: A Multidisciplinary Journal in Hindi [ISSN: 2581-4044 (online)] https://stm.eurekajournals.com/index.php/anveshan <p>The Anveshan: A Multidisciplinary Journal in Hindi, is a <strong><em>National peer-reviewed journal,</em></strong> which aim is to provide a high profile, open access, leading-edge forum for authors and academic researchers working in the fields of science, technology, management, arts, medical, pharmacy and engineering to contribute, and to disseminate innovative and important new work in Hindi/Hinglish language. This journal specially aims to provide a platform to the authors who prefer publishing their articles in languages other than English (Hindi/Hinglish). The journal focuses on a fast peer review process of submitted papers to ensure accuracy, the relevance of articles and originality of papers.</p> <p>This is the new weblink of the journal. To access the previous issues of the journal, kindly visit: http://art.eurekajournals.com/index.php/Anveshan/issue/archive</p> Eureka Journals en-US The Anveshan: A Multidisciplinary Journal in Hindi [ISSN: 2581-4044 (online)] 2581-4044 राजस्थान में पर्यटन विकास का आधार स्तम्भ https://stm.eurekajournals.com/index.php/anveshan/article/view/546 <p>वर्तमान में पर्यटन सैर सपाटे और मनोरंजन के दायरे तक ही सीमित विषय नहीं रहा है। आज सम्पूर्ण विश्व में पर्यटन एक महत्वपूर्ण स्वरूप लेता जा रहा है। विगत वर्षो में पर्यटन का इतना तीव्र गति से विकास हुआ है कि पर्यटन के प्रति लोगों का दृष्टिकोण ही बदल गया है और सभी राष्ट्रों में पर्यटन के प्रति एक नयी अवधारणा विकसित हो रही है। पर्यटन महत्वपूर्ण आर्थिक गतिविधि, संस्कृति से जुड़ी क्रिया, ऐतिहासिक व पुरामहत्व के विषयों के साथ ही समाज के सभी स्तरों से जुड़ी क्रिया या उद्योग बन गया है। पर्यटन भारत जैसे देश जिसमें बेरोजगारी एक प्रमुख समस्या है के निदान में भी सहायक सिद्ध हुआ है।</p> Smt. Rajani Varun Dr. Kirti Chaudhary Copyright (c) 2019 The Anveshan: A Multidisciplinary Journal in Hindi [ISSN: 2581-4044 (online)] 2019-07-15 2019-07-15 3 1 दक्षिणी राजस्थान में जनजाति एवं गैर जनजाति गांवों में वर्षा की प्रवृत्ति एवं उसका कृषि भूमि उपयोग पर तुलनात्मक अध्ययन व प्रभाव (2000-01, 2005-06, 2010-11) https://stm.eurekajournals.com/index.php/anveshan/article/view/547 <p>कृषि भूमि मानव का आधारभूत संसाधन है। भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि अपना महŸवपूर्ण स्थान रखती है। मानव सभ्यता के आरम्भिक काल से लेकर आज के विकसित वैज्ञानिक एवं तकनीकी युग में कृषि एक प्रमुख व्यवसाय रहा है। राज्य की 56 प्रतिशत आय कृषि से तथा कुल भूमि के 45 प्रतिशत भाग पर कृषि कार्य करने के साथ ही कुल कार्यरत जनसंख्या का 70 प्रतिशत जनसंख्या कृषि व्यवसाय से जुड़ी हुई है। सन् 2011 में देश की 52 प्रतिशत आबादी को कृषि क्षेत्र में रोजगार मिला है। वर्ष 2010-11 में राष्ट्रीय आय में कृषि क्षेत्र का योगदान 14.5 प्रतिशत था, जो वर्ष 2012-13 में यह योगदान घटकर 13.90 प्रतिशत रह गया। कृषि भूगोलवेŸाा का प्रमुख कार्य भू-तल पर मानवीय तथा भौतिक तत्वों के संयोग से उत्पन्न क्षेत्रिय प्रारूप तथा उनके अन्र्तसम्बन्धों को खोजना तथा स्पष्ट करना है। अध्ययन क्षेत्र में बढ़ती हुई जनसंख्या के अनुपात में कृषि भूमि का क्षेत्र लगातार कम होता जा रहा है। कृषि क्षेत्र बड़े पैमाने पर रोजगार उपलब्ध करवाने वाला क्रिया कलाप है। देष में 1951 (प्रथम पंचवर्षीय योजना) से लेकर 12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-2017) तक कृषि को विशेष महत्व दिया गया है।</p> डॉ राजेंद्र कुमार मेघवाल Copyright (c) 2019 The Anveshan: A Multidisciplinary Journal in Hindi [ISSN: 2581-4044 (online)] 2019-07-15 2019-07-15 3 1 मानवीय सरोकारों की टकराहट से उत्पन्न कविताएँ https://stm.eurekajournals.com/index.php/anveshan/article/view/548 <p>समकालीन हिंदी कविता संसार में रीतादास राम की काव्य-यात्रा का सफ़र गंभीर रूप से नब्बे के दशक से प्रारंभ होता है| अब तक इनके दो कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं| पहला ‘तृष्णा’ 2012 में प्रकाशित हुआ तथा हिंदी कविता जगत में काफी चर्चित भी रहा है| ‘गीली मिट्टी के रूपाकार’ 2016 में ‘हिन्द युग्म’ से प्रकाशित दूसरा कविता-संग्रह है| इसमें 2012 से 2016 के दौरान लिखी गई कविताओं को संग्रहीत किया गया है| ‘गीली मिट्टी के रूपाकार’ को वर्ष 2016 में ‘हेमंत स्मृति कविता सम्मान’ (हेमंत स्मृति फाउंडेशन, भोपाल, म.प्र.) से सम्मानित किया गया है| रीतादास राम के इस कविता-संग्रह की कविताओं से गुजरना अपने वर्तमान समय से बावस्ता होना है| इनकी कविताएँ वर्तमान मनुष्य के दैनिक जीवन की तमाम उलझनों, संघर्षों एवं विभिन्न समसामयिक मुद्दों की टकराहट से उत्पन्न हुई हैं जिसके दृश्य इन कविताओं में बखूबी दृष्टिगोचर हुए हैं|</p> दिनेश अहिरवार Copyright (c) 2019 The Anveshan: A Multidisciplinary Journal in Hindi [ISSN: 2581-4044 (online)] 2019-07-15 2019-07-15 3 1 पर्यावरण संरक्षण में मीडिया की भूमिका https://stm.eurekajournals.com/index.php/anveshan/article/view/549 <p>वर्तमान से कुछ वर्ष पूर्व जब कभी पर्यावरण संरक्षण की बात हमारे दिलों-दिमाग पर आती थी, तो लोगों के मन-मस्तिष्क पर ध्वनि प्रदूषण, वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण की समस्या से निदान पाने की बात चलती रहती थी, लेकिन वर्तमान वैश्विकरण के दौर में जब विकास ही अंधी दौड़ ही सभी देशों के लिए आवश्यक हो गया है, तो पर्यावरण संरक्षण की बात के वक्त प्रदूषण की समस्याएं बहुत ही जटिल हो चुकी है। आज हमारे सामने पर्यावरण प्रदूषण के तौर पर ग्लोबल वार्मिंग और पटाखों के साथ उत्तर भारत में पराली जलाने की समस्या प्रदूषण को बढ़ावा देने में आम हो चली है। अगर हम वर्तमान में भारत के परिदृश्य में पर्यावरण प्रदूषण से निजात के बारे में विचार करते है, तो हमें दीपावली के वक्त जलने वाले ज्वलनशील और खतरनाक पटाखों पर रोक के लिए सोचना आज के परिदृश्य में आवश्यक हो चला है। पर्यावरण में फेल रहे प्रदूषण के लिए केवल सरकार को ही जिम्मेदार नहीं कहा जा सकता है, इसके लिए देश के नागरिक भी जिम्मेदार है, जो पर्यावरण के लिए अपने उत्तर दायित्वोंका निर्वहन नहीं कर रहे है। देश में करोड़ों रूपये विस्फोटक ज्वलनशील पटाखों आदि पर उठा दिए जाते है, जो प्रदूषण के लिए अहम जिम्मेदार होते है। इन पैसों का उपयोग अगर दिल्ली जैसे प्रदूषित शहर को निर्मल बनाने में किया जाएं, तो स्वच्छ वायु में सांस लिया जा सकता है। लोगों की सोच में खोट होने की वजह से देश में पर्यावरण की स्थिति में परिवर्तन नहीं हो पा रहा है। इन पटाखों में विषैले रसायन और सीसा आदि होता है, जो पर्यावरण में घुलकर वातावरण को प्रभावित करने का कार्य कर रहे है। दिल्ली जैसे क्षेत्रों में प्रदूषण की वजह पटाखे ही नहीं खेतों की पराली जलाने और मोटर वाहन आदि भी बराबर रूप से जिम्मेदार कहे जा सकते है। खेत की पराली जलाने के मामले में उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और पश्चिम बंगाल देश के लिए नासूर साबित हो रहे है। राष्ट्रीय स्तर पर सालाना नौ करोड़ टन से अधिक पराली खेतों में जलाई जाती है, जिसकी वजह से पर्यावरण के नुकसान के साथ मिट्टी की उर्वरा क्षमता भी प्रभावित होती है। राज्य सरकारें हर फसली सीजन में अपना घर फूंक तमाशा देखने का कार्य करती आ रही है, जिसके कारण स्थिति यह उत्पन्न होने की कगार पर आ चुकी है, कि सोना उगलने वाली धरती बांझ बनने की कगार पर है, और वायु प्रदूषण से सांस लेना मुश्किल हो गया है। इन सभी तरह के वायु प्रदूषण के जिम्मेदार घटकों से निपटने के लिए न सरकार कोई ठोस कदम उठाती दिख रही है, और न ही जनता अपने आप में इस भयावह मुसीबत की निजात के बारे में कोई सुध लेती दिख रही है।</p> <p>खेती और किसानों के लिए अहम पराली को संरक्षित करने के बाबत बनाई गई राष्ट्रीय पराली नीति भी राज्य सरकारों के ठेंगा पर दिख रही है। गेहूं, धान और गन्ने की पत्तियां सबसे ज्यादा जलाई जाती है। अधिकृत रिपोर्ट के अनुसार देश के सभी राज्यों को मिलाकर सालाना 50 करोड़ टन से अधिक पराली निकलती है उम्मीदों से भरे प्रदेश उत्तर प्रदेश में छह करोड़ टन पराली में से 2.2 करोड़ टन पराली जलाई जाती है। इसी तरह पंजाब में पांच करोड़ टन में से 1.9 करोड़ और हरियाणा में 90 लाख टन पराली जलाई जाती है।</p> KESHAV PATEL Copyright (c) 2019 The Anveshan: A Multidisciplinary Journal in Hindi [ISSN: 2581-4044 (online)] 2019-07-15 2019-07-15 3 1 ग्रामीण क्षेत्र के माध्यमिक विद्यालयों में अध्ययनरत विद्यार्थियों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति और शैक्षिक उपलब्धि का तुलनात्मक अध्ययन? https://stm.eurekajournals.com/index.php/anveshan/article/view/550 <p>शिक्षा के रूप में विद्यार्थी जीवन का व्यवहार ज्ञान एवं कला कौशल में वृद्धि एवं परिवर्तन किया जाता है। विल्सन एच० एफ० (1976) ने अपने अध्ययन में पाया कि विद्यार्थियों में अधिगम के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोंण एवं उसकी उच्चतम शैक्षिक उपलब्धि उनके माता-पिता और अभिभावक की उनके शैक्षिक कार्यों में हो रहे रूचि से जुड़ी हुई हैं। माध्यमिक विद्यालय में विद्यार्थियों ने कितना ज्ञान अधिग्रहित किया हंै इसका पृष्ठपोषंण शैक्षिक उपलब्धि द्वारा ही लगाया जा सकता हैं। शैक्षिक उपलब्धि उन विद्यार्थियों द्वारा अधिगम किये गये एवं प्रयोग में लाये गये ज्ञान को मापने का सर्वोत्तम साधन हैं। तथा यह उनके पारिवरिक तथा सामाजिक आर्थिक पृष्ठभूमि पर पुर्णतया निर्भर करता है। विद्यार्थियों के नैतिकता, सामाजिक मूल्यों में गिरावट का प्रभाव शिक्षा में देखने को मिलता हैं। जिसमें मुर्त या अमुर्त रूप से विद्यार्थियों की शैक्षिक उपलब्धि को प्रभावित करती हैं। विद्यार्थियों को प्रत्येक क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा व तनावपूर्ण प्रस्थिति का सामना करना पड़ता हैं। इसमें सफलता हेतु आवश्यक हैं कि वह अपने व्यवहारों को शैक्षिक लक्ष्यों कीे प्राप्ति हेतु निर्मित करें। अतः विद्यार्थियों के शैक्षिक विकास में शैक्षिक उपलब्धि, सामाजिक आर्थिक स्थिति और उससे सम्बन्धित चरों का महत्वपूर्ण स्थान हैं। <br>शैक्षिक उपलब्धि के संन्दर्भ में रेखा (1996) द्वारा किए गये शोधकार्यों में निष्कर्ष के रूप में पाया गया कि परिवार के सभी सदस्यों द्वारा प्रदान किया गया निर्देशन व पथ प्रदर्शन विद्यार्थियों के अच्छे शैक्षिक दृष्टिकांेण एवं शैक्षिक उपलब्धि में अपना योगदान केता हैं। उपलब्धि से तात्पर्य किसी भी क्षेत्र में अर्जित ज्ञान से नहीं हैं अपितु सामान्यतः हम उपलब्धि को शैक्षिक क्षेत्र में ही देख सकते हैं। लेकिन यह जीवन के सभी क्षेत्रों से सम्बन्धित होती हैं। अतः शैक्षिक उपलब्धि का तात्पर्य विद्यार्थियों द्वारा कक्षाकक्ष में विभिन्न विषयों में प्राप्त प्रतिफलों से नहीं है अर्थात् शैक्षिक उपलब्धि विद्यालय में कक्षाकक्ष में विद्यार्थियों के अध्ययन विषय के प्रति अर्जित शैक्षणिक ज्ञान से हैं। <br>ज्ञानानी (2005) ने अपने अध्ययन में पाया की माघ्यमिक विद्यालय के विद्यार्थियों को मिलने वाली अभिप्रेरणा तथा उनकी शैक्षिक उपलब्धि में सार्थक अंतर होता हैं। और इनके अनुसार मनुष्य को सफल विद्यार्थी बनाने में समाज का सबसे महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। समान भौतिक साधनों के होते हुए भी यदि किसी विद्यार्थी को समाज का सम्पर्क नहीं मिलता तो उनका विकास न होकर पशुवत बन कर रह जाता है। आज का विकसित प्राणी सदियों की सामाजिक गतिशीलता का ही परिणाम है।</p> अभिषेख कुमार पाण्डेय प्रो0 (डाॅ0) रघुराज सिंह Copyright (c) 2019 The Anveshan: A Multidisciplinary Journal in Hindi [ISSN: 2581-4044 (online)] 2019-07-15 2019-07-15 3 1 मुक्तिबोध के काव्य में आत्मसंघर्ष https://stm.eurekajournals.com/index.php/anveshan/article/view/545 <p>जीवन की लघुता और गुरूता की सार्थक अभिव्यक्ति मुक्तिबोध की कविताओं में सहज प्राप्त है। मुक्तिबोध की कविता उबड़-खाबड़ जिन्दगी का दस्तावेज है, जिसे कवि ने स्वयं भोगा और महसूस किया है। कविता से लेकर गद्य तक में ‘विपात्र‘ का यह कथन गूंजता प्रतीत होता है कि ‘‘सब ओर सघन आत्मीय नीला एकान्त फैला है और उसके अंधेरे नीले-नील में टूटे-फूटे आँगन में खिली हुई रातरानी महक रही है और मैं उस अहाते में जो पीली धुन्ध भरी खिड़की है- उसमें से मैं जो सड़क पर हूँ झांककर देखना चाहता हूँ कि बात क्या है।’’<sup>1</sup> जीवन के प्रति आखिर यह माजरा क्या है? जैसा प्रश्न मुक्तिबोध के यहाँ कही धंसा है। बकौल निर्मल वर्मा ‘‘जिसका जख्म अपने भीतर दबाए व जिन्दगी भर अपने शहर की अंधेरी सड़कों पर चलते रहे। वह बहुत लम्बी सड़क थी जो हिन्दुस्तानी कस्बों की तार-तार दरिद्रताओं, यातनाओं और आत्मग्लानियों के बीच गुजरकर जाती थी। कस्बे जिनमें न आधुनिक महानगर का चमकीला अभिजात्य है, न गाँवों का मटमैला धीरज बल्कि जहाँ सिर्फ दम तोडती बेचौनी है।‘‘<sup>2</sup> मुक्तिबोध ताउम्र जीवन के उन सवालों से जूझते रहे जो तथ्यों और तत्त्वों के कुहासे के बीच ओझल हो जाती हैं या कर दी जाती हैं। उनके रचनाकर्म में जो बेचैनी, बदहवासी व छटपटाहट दिखाई देती है उसके पीछे उनका अपने मध्यवर्ग के प्रति प्रेम और वितृष्णा का द्वन्द्वात्मक रिश्ता है। जो उनकी कविता को एक नया आयाम प्रदान करता है। अभिव्यक्ति की यह तड़प और इसके प्रति उल्लास दोनों काबिलेगौर है।</p> डॉ. विनय कुमार शुक्ला Copyright (c) 2019 The Anveshan: A Multidisciplinary Journal in Hindi [ISSN: 2581-4044 (online)] 2019-07-15 2019-07-15 3 1