मुक्तिबोध के काव्य में आत्मसंघर्ष

Authors

  • डॉ. विनय कुमार शुक्ला सहायक प्राध्यापक (हिन्दी), शासकीय रामानुज प्रताप सिंहदेव, स्नातकोत्तर महाविद्यालय, बैकुण्ठपुर, कोरिया (छ.ग.)

Abstract

जीवन की लघुता और गुरूता की सार्थक अभिव्यक्ति मुक्तिबोध की कविताओं में सहज प्राप्त है। मुक्तिबोध की कविता उबड़-खाबड़ जिन्दगी का दस्तावेज है, जिसे कवि ने स्वयं भोगा और महसूस किया है। कविता से लेकर गद्य तक में ‘विपात्र‘ का यह कथन गूंजता प्रतीत होता है कि ‘‘सब ओर सघन आत्मीय नीला एकान्त फैला है और उसके अंधेरे नीले-नील में टूटे-फूटे आँगन में खिली हुई रातरानी महक रही है और मैं उस अहाते में जो पीली धुन्ध भरी खिड़की है- उसमें से मैं जो सड़क पर हूँ झांककर देखना चाहता हूँ कि बात क्या है।’’1 जीवन के प्रति आखिर यह माजरा क्या है? जैसा प्रश्न मुक्तिबोध के यहाँ कही धंसा है। बकौल निर्मल वर्मा ‘‘जिसका जख्म अपने भीतर दबाए व जिन्दगी भर अपने शहर की अंधेरी सड़कों पर चलते रहे। वह बहुत लम्बी सड़क थी जो हिन्दुस्तानी कस्बों की तार-तार दरिद्रताओं, यातनाओं और आत्मग्लानियों के बीच गुजरकर जाती थी। कस्बे जिनमें न आधुनिक महानगर का चमकीला अभिजात्य है, न गाँवों का मटमैला धीरज बल्कि जहाँ सिर्फ दम तोडती बेचौनी है।‘‘2 मुक्तिबोध ताउम्र जीवन के उन सवालों से जूझते रहे जो तथ्यों और तत्त्वों के कुहासे के बीच ओझल हो जाती हैं या कर दी जाती हैं। उनके रचनाकर्म में जो बेचैनी, बदहवासी व छटपटाहट दिखाई देती है उसके पीछे उनका अपने मध्यवर्ग के प्रति प्रेम और वितृष्णा का द्वन्द्वात्मक रिश्ता है। जो उनकी कविता को एक नया आयाम प्रदान करता है। अभिव्यक्ति की यह तड़प और इसके प्रति उल्लास दोनों काबिलेगौर है।

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Published

2019-07-15