पर्यावरण संरक्षण में मीडिया की भूमिका
Abstract
वर्तमान से कुछ वर्ष पूर्व जब कभी पर्यावरण संरक्षण की बात हमारे दिलों-दिमाग पर आती थी, तो लोगों के मन-मस्तिष्क पर ध्वनि प्रदूषण, वायु प्रदूषण और जल प्रदूषण की समस्या से निदान पाने की बात चलती रहती थी, लेकिन वर्तमान वैश्विकरण के दौर में जब विकास ही अंधी दौड़ ही सभी देशों के लिए आवश्यक हो गया है, तो पर्यावरण संरक्षण की बात के वक्त प्रदूषण की समस्याएं बहुत ही जटिल हो चुकी है। आज हमारे सामने पर्यावरण प्रदूषण के तौर पर ग्लोबल वार्मिंग और पटाखों के साथ उत्तर भारत में पराली जलाने की समस्या प्रदूषण को बढ़ावा देने में आम हो चली है। अगर हम वर्तमान में भारत के परिदृश्य में पर्यावरण प्रदूषण से निजात के बारे में विचार करते है, तो हमें दीपावली के वक्त जलने वाले ज्वलनशील और खतरनाक पटाखों पर रोक के लिए सोचना आज के परिदृश्य में आवश्यक हो चला है। पर्यावरण में फेल रहे प्रदूषण के लिए केवल सरकार को ही जिम्मेदार नहीं कहा जा सकता है, इसके लिए देश के नागरिक भी जिम्मेदार है, जो पर्यावरण के लिए अपने उत्तर दायित्वोंका निर्वहन नहीं कर रहे है। देश में करोड़ों रूपये विस्फोटक ज्वलनशील पटाखों आदि पर उठा दिए जाते है, जो प्रदूषण के लिए अहम जिम्मेदार होते है। इन पैसों का उपयोग अगर दिल्ली जैसे प्रदूषित शहर को निर्मल बनाने में किया जाएं, तो स्वच्छ वायु में सांस लिया जा सकता है। लोगों की सोच में खोट होने की वजह से देश में पर्यावरण की स्थिति में परिवर्तन नहीं हो पा रहा है। इन पटाखों में विषैले रसायन और सीसा आदि होता है, जो पर्यावरण में घुलकर वातावरण को प्रभावित करने का कार्य कर रहे है। दिल्ली जैसे क्षेत्रों में प्रदूषण की वजह पटाखे ही नहीं खेतों की पराली जलाने और मोटर वाहन आदि भी बराबर रूप से जिम्मेदार कहे जा सकते है। खेत की पराली जलाने के मामले में उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा और पश्चिम बंगाल देश के लिए नासूर साबित हो रहे है। राष्ट्रीय स्तर पर सालाना नौ करोड़ टन से अधिक पराली खेतों में जलाई जाती है, जिसकी वजह से पर्यावरण के नुकसान के साथ मिट्टी की उर्वरा क्षमता भी प्रभावित होती है। राज्य सरकारें हर फसली सीजन में अपना घर फूंक तमाशा देखने का कार्य करती आ रही है, जिसके कारण स्थिति यह उत्पन्न होने की कगार पर आ चुकी है, कि सोना उगलने वाली धरती बांझ बनने की कगार पर है, और वायु प्रदूषण से सांस लेना मुश्किल हो गया है। इन सभी तरह के वायु प्रदूषण के जिम्मेदार घटकों से निपटने के लिए न सरकार कोई ठोस कदम उठाती दिख रही है, और न ही जनता अपने आप में इस भयावह मुसीबत की निजात के बारे में कोई सुध लेती दिख रही है।
खेती और किसानों के लिए अहम पराली को संरक्षित करने के बाबत बनाई गई राष्ट्रीय पराली नीति भी राज्य सरकारों के ठेंगा पर दिख रही है। गेहूं, धान और गन्ने की पत्तियां सबसे ज्यादा जलाई जाती है। अधिकृत रिपोर्ट के अनुसार देश के सभी राज्यों को मिलाकर सालाना 50 करोड़ टन से अधिक पराली निकलती है उम्मीदों से भरे प्रदेश उत्तर प्रदेश में छह करोड़ टन पराली में से 2.2 करोड़ टन पराली जलाई जाती है। इसी तरह पंजाब में पांच करोड़ टन में से 1.9 करोड़ और हरियाणा में 90 लाख टन पराली जलाई जाती है।